Friday, September 4, 2009

जीवन चक्र

एक ठूंठ
सड़क के बीचों बीच खड़ा
जूझता हुआ अपने आज से
दीमक का घर सा
बीते हुए कल की सुनहरी यादों में
जीता है अपने जीवन को

जब चिडियाएँ चहचहातीं थीं
घोसले बनाती थीं
उन हरी भरी डालियों पर
कभी सावन के झूले पड़ते
कभी प्रेम के रंग दिखते
तो कभी अलगाव का गम
कभी ओस की बूँदें टपकती
कभी सावन की बूँदें सजती

वह जो करता जीवन अर्पण
आसरा देकर पथिकों को
कभी सुनता सूखे पत्तों की सरसराहट
तूफानों से जूझता हुआ
खड़ा रहता अडिग, निःस्वार्थ

यह वृद्ध ठूंठ
असहाय,निर्बल
अपनी ज़मीन को छोड़ता हुआ
अपने इर्द-गिर्द नए जीवन
को ढूंढता है

फैली हुई उसकी जड़ों में से
फूटी कोपलें
एक सुखद एहसास दिलाते हुए
चैन की नींद सुलाती हैं..

पास खड़ा हुआ एक
लहलहाते वृक्ष में
देखता है अपना आने वाला कल….
और सोचता है अपना बीता हुआ कल ....

~~पायल~

2 comments:

  1. really a gud write about a tree............

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  2. कविता लिखना पहाड़ चड़ना है.
    पहाड़ चड़ना, अग्निशेखर के शब्दों में "शाश्वत सौन्दर्य की रचना प्रक्रिया में किसी ठूंठ का अंकुरित हो आना है "

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