Monday, September 21, 2009

बस यूँ ही

दिन के पहले पहर में
उजले सपनों की चादर ओढे
जब नींद गहराती है
मदहोश कर जाती है
तभी खिड़की पर दस्तक देती
उजाले की पहली किरण
चिडियों की चहचहाहट और
घास पर बिछी ओस की बूँदें
खींचती हैं मुझे अपनी ओर
खिड़की खोल
जब देखती हूँ
एक सर्द हवा का झोंका
मेरे बालों को छूता हुआ
गुज़र जाता है
और फिर अचानक
उस एक पल में
फूलों की महक से
मेरा कमरा भर जाता ही
उस महक में ढूंढती हूँ
एक कोमल सा स्पर्श
कुछ गुज़रे हुए पल
कुछ महकी हुई यादें
कुछ बहकी सी बातें
कुछ ख़ास नहीं
बस यूँ ही....:)
~~पायल~~

6 comments:

  1. चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. लिखते रहिये. शुभकामनाएं.

    ---
    लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!

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  2. उस महक में ढूंढती हूँ
    एक कोमल सा स्पर्श
    कुछ गुज़रे हुए पल
    कुछ महकी हुई यादें
    कुछ बहकी सी बातें
    कुछ ख़ास नहीं..

    बहुत खूब! स्वागत है आपका.

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  3. पायल जी की इस रचना में भाव मिला कुछ खास।
    और सबेरे के चित्रण का बेहतर है एहसास।।

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  4. दिन के पहले पहर में
    उजले सपनों की चादर ओढे
    जब नींद गहराती है
    मदहोश कर जाती है
    तभी खिड़की पर दस्तक देती
    उजाले की पहली किरण
    चिडियों की चहचहाहट और
    घास पर बिछी ओस की बूँदें
    खींचती हैं मुझे अपनी ओर
    खिड़की खोल
    जब देखती हूँ

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