Friday, December 11, 2009

खट्टी मीठी ज़िन्दगी के भूले बिसरे पल...

खट्टी मीठी ज़िन्दगी के भूले बिसरे पल
यादों के झरोखे से आज झांकते हैं
:
:
सीने में दबे हुए अनगिनत जज़्बात
वक्त के साथ धुंधले नज़र आते हैं
:
:
ओस में भीगे सीले हुए पत्ते
मोती बन आज आंखों में टिमटिमाते हैं
:
:
सागर में निरंतर उठते ज्वार भाटे
अक्सर साहिल पर आकर शांत हो जाते हैं
~~पायल~~

Thursday, November 26, 2009

सुर संग तान मधुर घुले जब..

सुर संग तान मधुर घुले जब
प्रीत अधूरी गीत बन जाये…
धुआं उठे जब आहों से तब
हिमनदी भी पिघली जाए

धरती संग गगन झूमे जब
सागर यूँ हिचकोले खाए
सीने में उठे तूफ़ान तब
जीवन नय्या डूबी जाए

सांझ ढले दिया जले जब
रंज-ओ-ग़म दूर हो जाए
पलकों पर मोती सजे तब
सतरंगी फ़िज़ा में घुल जाए

यादों के गलियारे में जब
तारों की महफ़िल सज जाये
चाहत के मेले लगे तब
दूर कहीं मेघ नीर बरसाए

~~पायल~~

Monday, November 2, 2009

उलझन....

ना जाने क्यूँ यह ख्याल आया
और अंतस में घर कर गया
दूर पड़ा एक कागज़ का टुकड़ा
कुछ सुनी हुई कहानियाँ सुना रहा था
अपने हाथ में उठा कर
अपनी हथेली से दबाकर
उसकी सिलवटों को हटाया
और गौर से देखा
तो परछाइयों में क़ैद
छटपटाता हुआ एक साया नज़र आया
जो अनायास ही चीखने चिल्लाने लगा

वो देखना चाहता था
अपनी आँखे मूँद
महसूस करना चाहता था
रुकी हुई धड़कन को
उड़ना चाहता था
पंछियों के संग
गाना चाहता था
कुछ अनसुने गीत
पहचानना चाहता था
ख़ुद को..

पर बदली हुई गति
से आख़िर बदल ही गया वो साया
अंधेरों में भी
महसूस कराता था जो अपना वजूद
आज सिलवटों में लिपटा हुआ
अधूरा सा दिखता है अब
पड़ा हुआ है कहीं दूर
अंधेरों में ढूंढता है अब अपना वजूद..
ना जाने क्यूँ यह ख्याल आया
और अंतस में घर कर गया !
~~पायल~~

Thursday, October 1, 2009

जाने कहाँ....

विचलित मन
एक घूमता हुआ आइना सा
भटकता हुआ
अठखेलियाँ करता,
अधीर,असहाय सा
अक्स दिखता उसमे निराकार
कभी कुछ मेरे जैसा
कभी दिखता वो बिल्कुल तुमसा

पगला सा मन
न कोई विकल्प है
न कोई समाधान
फिर भी निकल पड़ता है
बदहवास सा किसी खोज में
दूर जाने क्या तलाशता हुआ
जैसे मैं निकल पड़ी हूँ
जाने कहाँ यूँ ही लिखते लिखते..
~~पायल~

Sunday, September 27, 2009

एक ख़बर


सुनी थी एक रोज़ एक ख़बर
दहशत फैलाती मीलों तक
एक आदमखोर बाघ की
जो अचानक गरीब के खेतों में आता
और बच्चों को उठा कर ले जाता
उन्हें चीरता फाड़ता और यूँ ही बदहवास छोड़ जाता
आज फिर वही ख़बर सुनी
कुछ उड़ती उड़ती पर कुछ बदली हुई सी
शायद ज़माना बदल गया है
आज वो आदमखोर बाघ नहीं था
एक बाघ की खाल ओढे आदमी था
क्या पता सच है या झूठ
पर छोटे कस्बों में ये शोर आम है
कहते हैं सब "जो बीत गई सो बात गई"
पर मेरे ज़हन में एक सोच छोड़ गई
क्या तब बुझेगी इसकी प्यास
जब इसके अपने बच्चे होंगे आस पास ??
~~पायल~~

Saturday, September 26, 2009

सपना क्या है??

सपना क्या है?
एक ख्याल ही तो है
कभी आंखों में पलता हुआ
कभी दिलों में जलता हुआ
कभी आंसुओं में ढलता हुआ
कभी खुशियों में मुस्कुराता हुआ
कभी सोते से जगाता हुआ
कभी गहरी नींद में सुलाता हुआ
एक साया सा?
जो ख्यालों में गहराता जाता है
और ख़ुद में इतना समा जाता है
की इंसान जकड़ा रह जाता है
जब किसी का सपना टूटता है
तो कैसा लगता है?
कांच के टूटे टुकड़ों की तरह
क्या आंखों में चुभता है?
या फिर एक लम्बी रात की तरह
अंधेरों में ही बसता है?
और मानव मन ख़ुद ही रोता है
तो कभी ख़ुद ही ख़ुद पर हँसता है
हर सपने की भी कीमत होती है शायद
हकीक़त कीरा से टकराकर
क्या सपना अधूरा रह जाता है
और अपनी कीमत चुकाता है?
सपना सिर्फ़ सपना होता है
पर हाँ, खुशी का या गम का
एक लम्हा वो अपना होता है….
~~पायल~~

Monday, September 21, 2009

कुछ शब्द


.....कुछ शब्द
जिंदगी को टटोलते हुए
कुछ एहसास
शब्दों में खोये हुए
कुछ वादे
एहसास में पिरोये हुए
कुछ सपने
उन वादों में जागते हुए ढूंढती हूँ
फिर अपनी बंद मुट्ठी को खोलकर
उन सपनों को देखती हूँ
हवाओं में घुलते हुए
…..रंग बिखेरते हुए....
हवाओं में घुलते हुए
उन सपनों को देखती हूँ
फिर अपनी बंद मुट्ठी को खोलकर
उन वादों में जागते हुए ढूंढती हूँ
कुछ सपने
एहसास में पिरोये हुए
कुछ वादे
शब्दों में खोये हुए
कुछ एहसास
जिंदगी को टटोलते हुए
कुछ शब्द.....
~~पायल~~

बस यूँ ही

दिन के पहले पहर में
उजले सपनों की चादर ओढे
जब नींद गहराती है
मदहोश कर जाती है
तभी खिड़की पर दस्तक देती
उजाले की पहली किरण
चिडियों की चहचहाहट और
घास पर बिछी ओस की बूँदें
खींचती हैं मुझे अपनी ओर
खिड़की खोल
जब देखती हूँ
एक सर्द हवा का झोंका
मेरे बालों को छूता हुआ
गुज़र जाता है
और फिर अचानक
उस एक पल में
फूलों की महक से
मेरा कमरा भर जाता ही
उस महक में ढूंढती हूँ
एक कोमल सा स्पर्श
कुछ गुज़रे हुए पल
कुछ महकी हुई यादें
कुछ बहकी सी बातें
कुछ ख़ास नहीं
बस यूँ ही....:)
~~पायल~~

Friday, September 4, 2009

जीवन चक्र

एक ठूंठ
सड़क के बीचों बीच खड़ा
जूझता हुआ अपने आज से
दीमक का घर सा
बीते हुए कल की सुनहरी यादों में
जीता है अपने जीवन को

जब चिडियाएँ चहचहातीं थीं
घोसले बनाती थीं
उन हरी भरी डालियों पर
कभी सावन के झूले पड़ते
कभी प्रेम के रंग दिखते
तो कभी अलगाव का गम
कभी ओस की बूँदें टपकती
कभी सावन की बूँदें सजती

वह जो करता जीवन अर्पण
आसरा देकर पथिकों को
कभी सुनता सूखे पत्तों की सरसराहट
तूफानों से जूझता हुआ
खड़ा रहता अडिग, निःस्वार्थ

यह वृद्ध ठूंठ
असहाय,निर्बल
अपनी ज़मीन को छोड़ता हुआ
अपने इर्द-गिर्द नए जीवन
को ढूंढता है

फैली हुई उसकी जड़ों में से
फूटी कोपलें
एक सुखद एहसास दिलाते हुए
चैन की नींद सुलाती हैं..

पास खड़ा हुआ एक
लहलहाते वृक्ष में
देखता है अपना आने वाला कल….
और सोचता है अपना बीता हुआ कल ....

~~पायल~

एहसास

ज़ख्म कुछ गहरे मिले इस दिल को
दर्द का इलाज करती हूँ
मेरे हर शिकवे में तू ही है
तेरे हर गिले में मैं ही हूँ


ढूंढती हूँ आज मैं ख़ुद को
ख्यालों में फिर खो जाती हूँ
तू हर पल मेरे पास है
मैं हर पल तेरे साथ हूँ


कोई क्या जाने इस एहसास को……
महसूस कभी यूँ करती हूँ….
जैसे कहीं तू मुझ में रहता है
और कहीं मैं तुझ में रहती हूँ….

~~पायल~~

दायरा


सिमटे हुए दायरों में कभी
कुछ रिश्ते ऐसे बन जाते हैं
जो न तो भूले जाते हैं
और न ही याद आते हैं


कहना चाहो कुछ भी
तो और चुप हो जाते हैं
बात पूरी हो जाती है
शब्द कहीं खो जाते हैं

कुछ अनसुनी बातों में
मतलब उलझ से जाते हैं
वक्त के सैलाब में
रिश्ते गुम हो जाते हैं...
~~पायल~~

....

हंसने के लिए वजह ज़रूरी है,
बेवजह मुस्कुराना भी मजबूरी है
कुछ सवालों से ख़ुद को बचाना है
इसलिए लबों पर हँसी को लाना है
जहाँ में हर कतरे की कीमत होती है
मुस्कुराकर उस कीमत को चुकाना है
~~पायल~~

Thursday, September 3, 2009

..एक रिश्ता

आंसुओं से एक रिश्ता है,
आंसुओं में एक रिश्ता है
रिश्ता जज़्बात का,
रिश्ता एहसास का,
आंखों का दिल से,
दिल का दर्द से,
दर्द का एहसास से,
एहसास का जज़्बात से......
आंसुओं से एक रिश्ता है,
आंसुओं में एक रिश्ता है
~~पायल~~

अन्तर्द्वन्द्व

भरा हुआ है इस दिल में गुबार इतना
मानो ज्वालामुखी में उफनता लावा जितना
डोलती जा रही है धरती, गिर रही हैं चट्टानें
तहस नहस न हो जाए सब, सोचता मन क्यों इतना
टूटा जाता है अब बाँध सब्र का इतना
गूंजती हुई हैं खामोशियाँ, सहमी हुई हैं दिशायें
अंतर्मन से रिसता लहू है, यह मन डरता क्यों इतना
पूछो इन वृक्षों से है सहा प्रहार कितना
एहसास की तपन ,झुलसती हुई हैं आशाएं
बीते पतझड़ की आग को, रे मन क्यों याद करे इतना
सावन की शीतल लहरों ने बुझाना भी चाहा कितना....

~~ पायल~~

Wednesday, September 2, 2009

मतिभ्रम

एक ख़याल तन्हा कर जाता है

कुछ धुंधलका सा छा जाता है

एक धड़कन सुनाई देती है

एक चेहरा दिखाई देता है

कभी अपना सा नज़र आता है

कभी सवाल बनकर रह जाता है

एक कशमकश सी है

अपना है या सपना है कोई?!?

~~पायल~~

जुगनू


एक जुगनू अँधेरी रात में सलीका सिखा गया
अंधेरों को रोशन करने का तरीका बता गया......
अंतस की ज्वाला को प्रज्वलित करते हुए
एक चिंगारी को जैसे शोला बना गया......
अनजानी भीड़ में ख़ुद को तलाशते हुए
ख़ुद से ख़ुद की पहचान करा गया.......
अनचाहे गिले शिकवे भुलाते हुए
कुछ भटकते हुए सवालों के जवाब बता गया.......
फिर मंद ही मंद मुस्कुराते हुए
आस का एक बुझा हुआ दीपक जला गया........
~~पायल~~