इमारत गिर रही थी..सब याद आ रहा था| पापा का तबला जीजी का डांस ताऊजी की सधी हुई कैलीग्राफी और मोती पिरोये हुए शब्द, जब लेखनी से लिखते थे तो देखते ही सब मंत्रमुग्ध हो जाते थे| ताईजी का गोल वरांडे में लगी कुर्सी पर बैठे घुटनों को सहलाना और वहीं से आवाज़ लगाना|
और हाँ वो हाथ का पंखा तो जैसे उनसे छूटता ही नहीं था|
मम्मी के हाथ के दहीबड़े....और उनकी मीठी सी डाँट सब याद आ रहा था| वो आम की बौर पर कोयलों का कूकना
वो हमारा थाली में सुबह सुबह केवड़े के फूल इकट्ठे करना और फिर उनकी माला बनाना|
जब आँधी चलती थी तब सब पहुँच जाते थे उस इमली के पेड़ के नीचे|
साल भर के लिए इमली इकट्ठी कर लेते थे|
गुड़िया की शादी भी तो करते थे पर विदाई नहीं करते थे| अपने गुड्डे गुड़ियों से लगाव जो था|
अपनों सी बिछड़ने का दुःख तो बचपन से ही था|
बातें होती थीं हमारे पास. वक़्त जो था..बस अच्छी यादों को समेटकर रखा है मैंने|
होड़ लगी रहती थी हम बहनों में. कौन कितनी सुबह उठेगा|
जब टहलने जाते थे शाम के वक़्त खुली सड़कों पर बिना किसी डर के शायद वैसा सा ही शांत वातावरण है आज...
चिड़ियों की चहक आज ज़्यादा सुनाई दे रही है|
पुरानी बातें पुरानी यादें आज कुछ ज़्यादा ही आ रही हैं|
-payalagarwal
Sunday, March 22, 2020
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