Thursday, September 3, 2009

अन्तर्द्वन्द्व

भरा हुआ है इस दिल में गुबार इतना
मानो ज्वालामुखी में उफनता लावा जितना
डोलती जा रही है धरती, गिर रही हैं चट्टानें
तहस नहस न हो जाए सब, सोचता मन क्यों इतना
टूटा जाता है अब बाँध सब्र का इतना
गूंजती हुई हैं खामोशियाँ, सहमी हुई हैं दिशायें
अंतर्मन से रिसता लहू है, यह मन डरता क्यों इतना
पूछो इन वृक्षों से है सहा प्रहार कितना
एहसास की तपन ,झुलसती हुई हैं आशाएं
बीते पतझड़ की आग को, रे मन क्यों याद करे इतना
सावन की शीतल लहरों ने बुझाना भी चाहा कितना....

~~ पायल~~

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